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A**R
बकरी पाती खात है, ताकी खींचो खाल। जे नर बकरी खात है, ताको कौन हवाल॥ ✍🏼 कबीर
The media could not be loaded. कबीर दास एक सांप्रदायिक व्यक्ति थें। वे लोगों के खान पान पर टिप्पणी करते थें। खुलकर नहीं जीने देते थें। बेहद असंवेदन शील थें।भुने हुए मुर्ग मुसल्लम और निहारी मटन खाने वालो की तरह प्रोग्रेसिव नहीं थे कबीर दास ।दुनिया में बहुत से धर्म हैं , उन्होंने सिर्फ मुसलमान और हिन्दुओं पर लिखा। बताइए कितने बुरे व्यक्ति थें।ईसाई, यहूदी, कुर्द, बौद्ध, जैन , नीग्रो, आदिवासी, पारसी, आदि संप्रदाय पर उन्हें कोई कमी नहीं दिखा।वे आत्म मुग्ध थे। अहंकारी भी । ख़ुद को केंद्र में रखते थें।मुलायम नहीं बोलते थें। पापी होने को " प्रैक्टिकल" होना नहीं कहते थें।यह सब कुछ ऐसा ही है। सुशोभित सक्तावत के साथ ऐसा हो रहा है।उनकी तुलना कबीर से नहीं कर रहा । लेकिन उनके इस पुस्तक में स्थापित विमर्श पर कोई बात करने के लिए तैयार नहीं है। लेखक को गाली देना , खारिज करना सरल है। उपाधि देना और सरल। किंतु पुस्तक जिस तरफ इशारा कर रही है, वे विषय संवेदनशील हैं।मैं मांसाहारी रहा हूं। धीरे धीरे छोड़ रहा हूं। पूर्वांचल के ठाकुरों के घर में पैदा होकर मांस छोड़ना सहल नहीं है। यह भोजन संस्कार है। बाढ़ से पीड़ित इलाके में मछली और घोंघा खाकर लोग जीवित रहते रहे हैं। किंतु शायद अब वह मजबूरी नहीं है।मांस खाना इसलिए भी छोड़ना पड़ेगा कि पोल्ट्री फार्म के दूरगामी परिणाम इको सिस्टम के लिए खतरनाक हैं। डेयरी उत्पाद तो केमिकल बेच रहे हैं। गाय भैंस बीफ के फैक्ट्री में कट रही हैं।मेरे ही घर में मैंने अपने हाथो से एक बाछी जो बहिला (बांझ) हो गई , उसे कसाई के हाथो से बेचा। तब मैं नौवीं क्लास में था।वह बांझ इसलिए हो गई थी ,क्योंकि समय पूर्व ही उसे गर्भाधान के लिए दवा दिया गया और कृत्रिम गर्भाधान से गुजारा गया। जिसे सीमेन डालना कहा जाता है। उस दिन मेरे भीतर की मासूमियत मर गई थी। सोचिए, कितना traumatic अनुभव रहा होगा। इसने मुझे एक क्रोधी मनुष्य बना दिया था।इस पुस्तक ने इस ओर भी सवाल खड़ा किया है। मांस खाने से अवचेतन और शरीर के स्तर पर तामसिकता महसूस होती है । मैं अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूं कि जब हम मांस खाते हैं तो मन भारी हो जाता है। और एक बात मांस कटने वाले दुकान पर से जब भी जाता था, उस दिन खाने का मन नहीं करता था। अनायास....नहीं था ये सब। सुशोभित ने इस तरफ भी इशारा किया है।मांस खाने से या डेयरी उत्पाद से पाचन की समस्या होती है। कोई मांस खाकर गैस छोड़ता है तो बहुत गंदा स्मेल आता है। मशहूर लिवर डॉक्टर सरीन से मैंने पूछा था , तब उन्होंने कहा था कि ऐसा इसलिए होता है क्योंकि मांस को पचाने के लिए पेट में एसिडिटी बढ़ जाती है। मांस सड़ते हुए पचता है।मीट खाना छोड़ने पर मेरा पेट, मन और दिमाग शांत रहता है।यूरिक एसिड कंट्रोल में रहता है। मांस cholestrol को भी बढ़ाता है। यह एक inhuman food हैं। राक्षसी भोजन।मांस खाने से अलग तरह की खुमारी भी आती है। एक तीक्ष्ण यौन ऊर्जा का संचार होता है। जो पशुवत होता है। यह भी अनुभव जन्य सत्य लिख रहा हूं।फिर भी मैं लेखक को गाली नहीं दूंगा। उन्होंने जीव दया के विमर्श को इसलिए भी उठाया है ताकि मुझ जैसे आम आदमी के मन में करूणा भाव की पुकार उठे।मैं गलत करता हूं। मांस भक्षण पाशविक वृत्ति है। इसे मैं स्वीकार करता हूं। और मैं इसे छोड़ने की प्रक्रिया में हूं। तिस पर मैं गाली नहीं दूंगा किसी भी उस व्यक्ति को जो मेरी किसी भी कमी को उजागर करे।मैं स्वार्थी हूं , जिह्वा की गुलामी कर रहा हूं,किसी भी स्तर पर गिरकर। इसके लिए मैं किसी और को ,जो एक तार्किक कारण के साथ , मांस भक्षण का प्रतिरोध कर रहा है।उसका विरोध कैसे कर सकता हूं। यह तो दोगला पन होगा।हां, मैं इस पुस्तक के विमर्श को समझकर स्वयं में सुधार ला सका तो सुंदर बात होगी। और मैं ऐसा करूंगा भी।किंतु लेखक को यह कहना कि वह कौन होता है मेरे खानपान की शैली को बताने वाला। तो यह गुनाह होगा।लेखक ऐसा नहीं है कि वह हर मांस के दुकान के आगे अपनी किताब का ठेला लगाकर बैठा है। या आपके डिनर पार्टी में अपनी किताब परोस रहा है। आपके घर आकर ,आपके किचन में बैठकर आपका मज़ा खराब कर रहा है।ऐसा नहीं है। उसने एक स्वस्थ विमर्श को नए सिरे से लिखा है। सुधी पाठक उसे पढ़ेंगे तो अपनी इच्छा से। वे हो सकता है कि चिकन खाकर इस किताब को पढ़े। किंतु इससे इस पुस्तक की महत्ता या इसमें उठाए गए प्रश्न सतही साबित नहीं होंगे। कदापि नहीं।मैं ऐसे देखता हूं कि लेखक ने एक आदर्श की बात की है। मानव मात्र के साहित्य इसी तरह का काम करता है। पश्चिम के काव्यशास्त्री भी यही कहते हैं, साहित्य मनोरंजक ज्ञान का राह प्रशस्त करता है। पर्यावरण, जीव दया, स्वास्थ्य और सात्विकता की बातें और विचार सुनने में अच्छी लग सकती हैं, पर इसी बिनाह अगर कोई हमारी कॉपी चेक कर दे, यह कह दे कि हमारे खान पान से, हमारे स्वार्थ से ही समस्याएं उपजी हैं तो मूढ़ मनुष्य का ego हर्ट होगा। सोचिए कि सुशोभित सक्तावत ने कितने बड़े समुदाय का इगो हर्ट किया है। इसलिए हिंदी के नए नवेले और चरित्रहीन लंपट और यौनिक, आत्मद्रोही एवं तामसिक कुंठा से भरे हुए ये तथाकथित बौद्धिक राक्षस उनके विमर्श पर विष वमन तो करेंगे ही।पॉली हाउस में खूब सब्जियां उगाई जा रही हैं। हम सबको सब्जी खानी चाहिए । इससे स्वास्थ्य ठीक रहता है।
R**S
आज की आवश्यकता
अति सुंदर प्रस्तुति। क्यों हम को जीव जंतु की पीड़ा के लिए संवेदनशील होना आवश्यक है। इस पे अंग्रेजी साहित्य में तो काफी सामग्री है। पर हिन्दी में ये पुस्तक पहली और कई मायनों में सबसे उत्तम भी है। सब मनुष्य जो स्वयं को अच्छा व्यक्ति मानते है अवश्य पढ़े
S**I
करुणामय और स्वस्थ जीवनशैली के लिए एक अनिवार्य पुस्तक
मैंने हाल ही में "मैं वीगन क्यों हूँ" किताब पढ़ी और इसे अत्यधिक ज्ञानवर्धक और परिवर्तनकारी पाया। लेखक ने वीगनवाद के लिए एक ठोस तर्क प्रस्तुत किया है, जिसे वैज्ञानिक अनुसंधान, नैतिक विचारों और व्यक्तिगत कहानियों से समर्थित किया गया है। किताब न केवल स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए पौधे-आधारित आहार के लाभों को समझाती है, बल्कि नैतिक कारणों पर भी गहराई से चर्चा करती है।लेखन स्पष्ट, आकर्षक और सुलभ है, जिससे जटिल विषयों को समझना आसान हो जाता है। प्रत्येक अध्याय अच्छी तरह से संरचित है और वीगनवाद की ओर कदम बढ़ाने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए मूल्यवान अंतर्दृष्टि और व्यावहारिक सलाह प्रदान करता है।मैं इस किताब को सभी को पढ़ने की सिफारिश करता हूँ, न केवल एक पढ़ाई के रूप में बल्कि अपने जीवन में सकारात्मक बदलाव लागू करने के मार्गदर्शक के रूप में। इसने निश्चित रूप से मुझे वीगन जीवनशैली अपनाने के लिए प्रेरित किया है, और मुझे विश्वास है कि यह दूसरों के लिए भी ऐसा कर सकती है। यह किताब एक सच्ची आंखें खोलने वाली है और करुणामय और स्वस्थ जीवन जीने के इच्छुक किसी भी व्यक्ति के लिए एक महत्वपूर्ण संसाधन है।
N**I
A must read
मैने बहुत समय बाद कोई पुस्तक इतने मन से पढ़ी है। पुस्तक आते ही एक दिन में पढ़ ली। पढ़ कर कई बार करुणा में रोई। सचमुच लगा मनुष्य बुद्धि के तल पर इतना आगे निकलने के बाद भी चेतना के तल पर कितना नीचे है। मानव जाति के हाथ खून से सने हुए है। क्या हिन्दू, क्या मुस्लिम , क्या सिख , क्या ईसाई। क्या भारत क्या अमेरिका। कोई देश, समाज , धर्म ऐसा नहीं जो पशुओं पर अत्याचार को रोक लगाए। इस पुस्तक का अधिक से अधिक प्रचार होना चाहिए। मांसाहारियों से कम ही आशा है लेकिन कई शाकाहारी तो वेगन बन सकते हैं। सुशोभित इस पुस्तक के लिए मेरी नज़रों में भगत सिंह के ही समक्ष है क्यूं की यह पुस्तक भी अपनेआप में एक क्रांति है।
J**I
सुंदर और सार्थक लेखन
यह पुस्तक लेखक ने बहुत मन से संजोई है। एक एक शब्द सीधा हृदय से निकलता है, इसीलिये पाठक के हृदय को छू लेता है। पुस्तक के छः भाग हैं और हर भाग एक अलग आयाम को छूता है। पशु संसार में रचे कौतूहलों, उनकी मासूम कोमल भावनाओं, उन्हें कुचलने के कुतर्कों व उनके जीवित रहने के अधिकारों के तर्कों को इससे बेहतर कोई नहीं रख सकता था। यह है सार्थक लेखन। अगर इसे पढकर भी लोगों को सद्बुद्धि नहीं आती तो फिर कोई उपाय नहीं। पर जैसा कि पुस्तक में भी कहा गया है, किसी को फर्क पड़े न पड़े हमें जो सही लगे वह करते जाना है। यही है कैरेक्टर।
S**
Must read.
I firmly believe that this book should be included in the syllabus worldwide. It sheds light on the cruelty inflicted on innocent animals and promotes the idea of choosing a vegan or vegetarian lifestyle to prevent humans from becoming devils. It's important to note that the claim that this book targets "Islam" is a blatant lie.
V**L
पशुओं के प्रति आत्ममंथन करवाती पुस्तक...
भारत में पशुओं पर ऐसा गद्य कम ही पढ़ने को मिलता है। सुशोभित जैसे लेखकों को हमें पढ़ना चाइये।दया और धैर्य जैसे मूल्य सिखाने के लिए बच्चों को ये पुस्तक जरूर पढानी चाहिए।अंत मे सुशोभित को बेहद शुक्रिया इस विषय पर पुस्तक लिखने के लिए।
प**
में विगन क्यों हूं
अंधेरे को मिटा देने वाली पढ़नी तो चाहिए
ترست بايلوت
منذ 3 أسابيع
منذ يوم واحد